खण्डवा में पेयजल के निजीकरण हेतु विश्वा इंफ्रास्ट्रक्चर्स एण्ड सर्विसेस प्रायवेट लिमिटेड के साथ कंशेसन अनुबंध किया है। इसके तहत 3 दिसंबर 2012 को नगर निगम द्वारा वाटर मीटरिंग और नल संयोजन नियमितीकरण नियम की अधिसूचना के प्रारुप का प्रकाशन कर नागरिकों से सुझाव मॉंगें।
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इस पर स्थानीय जनाक्रोश के बाद राज्य शासन को तत्कालीन जिला पंचायत सीईओ श्री तरुण कुमार पिथोड़े की अध्यक्षता में विशेषज्ञों और राजनैतिक कार्यकर्ताओं की एक स्वतंत्र समिति का गठन करना पड़ा। 1 जून 2013 को स्वतंत्र समिति ने अपनी रिपोर्ट जारी की। रिपोर्ट का सारांश नीचे प्रस्तुत है –
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खण्डवा में जलप्रदाय आवर्धन की नई योजना पर नवंबर 2006 से काम प्रारंभ हुआ। 2007 में जब इसे केन्द्र सरकार समर्थित UIDSSMT में शामिल किया गया। पेयजल के 25 वर्षों तक निजीकरण हेतु विश्वा इंफ्रास्ट्रक्चर्स एण्ड सर्विसेस प्रायवेट लिमिटेड के साथ कंशेसन अनुबंध किया है। इसके तहत 3 दिसंबर 2012 को नगर निगम द्वारा वाटर मीटरिंग और नल संयोजन नियमितीकरण नियम की अधिसूचना प्रकाशन के बाद नागरिकों ने अधिकृत रुप से निजीकरण पर अपनी आपत्तियाँ दर्ज करवाई। निर्धारित 30 दिनों में 10,334 परिवारों, जो कि कुल नल कनेक्शनधारियों की संख्या के 60 प्रतिशत से अधिक है, ने पानी के निजीकरण के संबंध में निजी कंपनी के साथ किए गए अनुबंध की वैधानिकता पर सवाल उठाते हुए अनुबंध रद्द करने की माँग की थी।
इसी दौरान एक स्थानीय वरिष्ठ नागरिक लक्ष्मीनारायण भार्गव की याचिका पर 31 दिसंबर 2012 को जिला उपभोक्ता फोरम ने षिकायतों के पारदर्षी तरीके से निराकरण करने तक अनुबंध के अंतिम प्रकाशन पर रोक संबंधी आदेश दिया। इसके बाद राज्य शासन द्वारा श्री तरुण पिथोड़े, सीईओ, जिला पंचायत की अध्यक्षता में 22 मार्च 2013 को एक 7 सदस्यीय स्वतंत्र समिति गठित की गई थी। समिति में लोक स्वास्थ्य अभियांत्रिकी विभाग के कार्यपालन यंत्री, पोलिटेक्निक कॉलेज के प्राचार्य, चार्टर्ड एकाउंटेण्ट, वास्तुकार और राजनैतिक कार्यकत्र्ता शामिल थे।
स्वतंत्र समिति ने पाया कि नागरिकों की आपत्तियों में पानी से संबंधित हर प्रकार की चिंताएँ और नगरनिगम की सामाजिक जवाबदेही का उल्लेख था। नागरिकों की सबसे प्रमुख आपत्तियों में चैबीसों घण्टे जलप्रदाय (24×7) को अनावश्यक बताते हुए इस अवधारणा को खारिज किया जाना शामिल था। सार्वजनिक नल खत्म न किए जाने, सार्वजनिक जल संसाधन निजी कंपनी को न सौंपे जाने, पानी की अधिक माँग दिखाने हेतु गलत तथ्य पेश करने, नॉन रेवेन्यू जलप्रदाय की अवधारणा खत्म करने, महँगे पानी के मीटर की अनिवार्यता होने, जल दर निर्धारण में निजी कंपनी का वर्चस्व होने जैसी 51 प्रकार की आपत्तियाँ उठाई गई थी। इन आपत्तियों के आधार पर निजी कंपनी के साथ किए गए अनुबंध को रद्द किए जाने की माँग की गई थी। इसके अलावा योजना के सलाहकार मेहता एण्ड एसोसिएट्स के चयन और निजी कंपनी को फायदा पहुँचाने हेतु अनुबंध तथा निर्माण सामग्री में किए गए मनमाने बदलावों को भी प्रमुखता से उठाया था।
व्यक्तिगत आपत्तियों के अलावा कुछ शासकीय संस्थाओं ने भी शासकीय जलंसाधनों के अधिग्रहण की स्थिति में पानी के बिल का अनावश्यक बोझ शासन पर पड़ने का उल्लेख करते हुए आपत्ति प्रकट की थी। आपत्तियों के अलावा नर्मदा योजना से प्राप्त जल को अतिरिक्त स्रोत के रुप में इस्तेमाल करने और नगर में जलप्रदाय हेतु एक स्वायत्त जल बोर्ड बनाने संबंधी सुझाव दिए थे।
स्वतंत्र समिति द्वारा 3 जून 2013 को खण्डवा कलेक्टर को सौंपी रिपोर्ट से स्पष्ट हुआ कि निजीकरण लोगों की समस्याओं के निराकरण के लिए नहीं बल्कि निहित स्वार्थों के कारण नागरिकों पर जबरन थोपा गया है। निजी कंपनी के पक्ष में प्रशासनिक और राजनैतिक स्तर पर एक गठजोड़ बना हुआ है। इसी के चलते मेयर इन कौंसिल और निगम कमिश्नर ने न सिर्फ निजी कंपनी को अनुचित लाभ पहुँचाए बल्कि निजीकरण हेतु नगरपालिक अधिनियम 1956 का भी उल्लंघन किया गया।
मेयर इन कौंसिल (एमआईसी) द्वारा अपनी सीमाओं से परे जाकर निजीकरण का निर्णय लिया जाना तथा निगम कमिश्नर द्वारा सक्षम प्राधिकारी की अनुमति के बिना निविदा पत्र में आमूलचूल बदलाव किए जाने को रिपोर्ट में गंभीर अनियमितता बताया गया है। नगरनिगम महापौर की अध्यक्षता वाली एमआईसी को कटघरे में खड़ा करते हुए लिखा गया है कि एमआईसी को योजना के संबंध में केवल वित्तीय अधिकार प्राप्त थे लेकिन उसने पानी के निजीकरण का निर्णय ले लिया। निगम कमिश्नर ने निविदा प्रपत्र में बदलाव कर ठेकेदार कंपनी की 120 किमी की नई वितरण लाईनें डालने की बाध्यता को घटा कर 60 किमी कर दिया गया तथा कंपनी को पाईप मटेरियल (योजना लागत का 70 प्रतिशत खर्च पाईप पर हुआ है) बदलने की भी छूट दे दी थी। इन विधिविरुद्ध कृत्यों से योजना का स्वरुप ही बदल गया तथा निजी कंपनी को गैरवाजिब सुविधाएँ प्रदान कर दी गई। समिति रिपोर्ट में बड़ी संख्या में नागरिकों की आपत्तियों पर टिप्पणी करते हुए कहा गया है कि निजीकरण जनता को स्वीकार नहीं है और यदि इसे लागू किया गया तो कानून व्यवस्था की स्थिति निर्मित हो सकती है।
निगम कमिश्नर द्वारा किए गए कुछ अन्य बदलावों के बारे में रपट में स्पष्ट किया गया है कि कमिश्नर ने जल वितरण निजी कंपनी से ही करवाने तथा इसी अनुरुप निविदा स्वीकृत करवाने का पहले से ही निर्णय ले लिया था। राज्य स्तरीय साधिकार समिति ने भी इस विधिविरुध्द कार्रवाही को रेखांकित करते हुए साधिकार समिति के निर्णय अनुरुप कार्य नहीं किया जाना तथा बिना अनुमति के कार्यादेश जारी किया जाना बताया था।
‘”बहुत सारी अनियमितताओं” के कारण स्वतंत्र समिति ने निजीकरण अनुबंध को निरस्त कर एक जल बोर्ड गठित करने की सिफारिश की है। समिति ने धार्मिक एवं सामाजिक दायित्वों के परिप्रेक्ष्य में जलस्रोतों को निजी कंपनी को हस्तांतरित किए जाने का विरोध किया है। नागरिकों के जल अधिकारों का समर्थन करते हुए गरीब बस्तियों में $अधिक से अधिक सार्वजनिक स्टेण्ड पोस्ट’ लगाने की माँग की है। कंपनी को दी गई नो पेरेलल कंपीटिंग फेसिलिटी’ के विरुद्ध अभिमत प्रकट करते हुए कहा है कि नगरनिगम के जलप्रदाय के विरुद्ध कोई समानांतर जलप्रदाय नहीं होना चाहिए। समिति ने निजी कंपनी की कार्यप्रणाली पर टिप्पणी करते हुए कहा है कि जो कंपनी 2 वर्ष का निर्माण कार्य साढ़े तीन सालों में भी पूरा नहीं कर पाई उसे 23 वर्षो के लिए नगर की जलप्रदाय व्यवस्था कैसे सौंपी जा सकती है। रिपोर्ट में योजना के सलाहकार मेहता एण्ड एसोसिएट्स के चयन पर सवाल उठाते हुए कहा है कि सलाहकार के पास अपेक्षित अनुभव नहीं था तथा उसे निर्धारित से अधिक मेहनताना दिया गया।
यूआईडीएसएसएमटी के संबंध में निर्णय मुख्य सचिव की अध्यक्षता वाली राज्य स्तरीय साधिकार समिति तथा नगरीय प्रशासन एवं विकास विभाग के मुख्य अभियंता की अध्यक्षता वाली राज्य स्तरीय तकनीकी समिति करती है। जबकि राज्य स्तर पर इन योजनाओं के समन्वय का काम मध्यप्रदेश विकास प्राधिकरण संघ’ करता था। राज्य स्तरीय साधिकार समिति ने खण्डवा की निविदा में बारबार किए जा रहे अनधिकृत बदलावों तथा निर्माण सामग्री के बदलावों के परिप्रेक्ष्य में नई निविदा आमंत्रित करने का निर्णय लिया था। इसी निर्णय के प्रकाश में नोडल एजेंसी ने नई निविदा आमंत्रित करने का निर्देश दिया। लेकिन खण्डवा नगरनिगम ने इस मामले अनावश्यक भ्रम फैलाकर निजी कंपनी को लाभ पहुँचाने हेतु शातिराना तरीके अपनाए जिसमें नगरीय प्रशासन एवं विकास विभाग के मुख्य अभियंता, जो राज्य स्तरीय तकनीकी समिति के अध्यक्ष भी है, ने पूरा सहयोग दिया। राज्य स्तरीय साधिकार समिति के निर्णय को चुनौती देने हेतु मुख्य अभियंता ने 2 पत्र जारी किए। 25 पत्रों की विषयवस्तु से स्पष्ट है कि उन्होंने अपनी ओर से इस मामले में कोई स्पष्ट विनिष्चय व्यक्त नहीं किया है बल्कि गलत तथ्य प्रस्तुत कर अनावश्यक भ्रम फैलाने का प्रयास किया ताकि नगरनिगम को कंपनी के पक्ष में मनमानी जारी रखने का बहाना मिल जाए। खण्डवा नगरनिगम ने मुख्य अभियंता के अवांछित पत्रों के आधार पर मुख्य सचिव की अध्यक्षता वाली राज्य स्तरीय साधिकारी समिति के निर्णय को बदल दिया तथा निजी कंपनी के साथ अनुबंध कर लिया।
प्रशासनिक कार्रवाही में राजनैतिक हस्तक्षेप संदेह पैदा करते हैं। जब नोडल एजेंसी द्वारा राज्य स्तरीय साधिकार समिति के निर्णयानुसार योजना में बदलाव के खिलाफ सख्ती दिखाई गई तो तत्कालीन महापौर श्री वीरसिंह हिंडोन इस मामले में कूद पड़े। निगम कमिश्नर को लिखे गए पत्र का जवाब महापौर ने दिया। महापौर ने सख्त लहजे में पत्र लिखकर नोडल एजेंसी की कार्यकारी निदेशिका को धमकाया कि वे इस मामले मुख्यमंत्री का ध्यान आकृष्ट करना चाहते हैं। अगले कुछ दिनों तक नगरनिगम ने नोडल एजेंसी की मीटिंगों में शामिल होने से परहेज किया। अंत में राज्य स्तरीय साधिकार समिति का निर्णय नज़रअंदाज कर नगरनिगम ने जलप्रदाय योजना के निर्माण एवं संचालन हेतु निजी कंपनी से अनुबंध कर लिया। नोडल एजेंसी द्वारा योजना को जारी की गई मंजूरी में उल्लेख किया गया है कि नगरनिगम ने राज्य स्तरीय साधिकार समिति के निर्णय अनुरुप कार्य नहीं किया है। लेकिन, बाद में इस अवैधानिक कृत्य को राज्य के मुख्य सचिव को भी मंजूरी देनी पड़ी। खण्डवा में निजीकरण विरोधी जनमत और निजीकृत योजना के संबंध में स्वतंत्र समिति की तथ्यात्मक रिपोर्ट की उपेक्षा करते हुए योजना को इसी रुप में जारी रखने का प्रयास है। जिम्मेदारों का यह तानाशाही रवैया कहीं नगर में कानून व्यवस्था की स्थिति, जैसा की स्वतंत्र समिति की रिपोर्ट में भविष्यवाणी की गई है, निर्मित न कर दें।
संक्षेप में स्वतंत्र समिति की रपट ने एक बार फिर सिद्ध कर दिया है कि निजीकरण को आगे बढ़ाने हेतु जिस प्रकार के घोटाले हर जगह किए जाते हैं खण्डवा भी न सिर्फ उनसे अछूता रहा है बल्कि यहाँ तो निजी कंपनी को फायदा पहुँचाने हेतु प्रशासनिक प्रक्रियाओं में राजनैतिक हस्तक्षेप, निजीकरण पर नागरिकों और जनप्रतिधियों की राय की उपेक्षा करना जैसे कई अवैधानिक काम किए गए हैं।
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